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पैसा--क्या यही है जीवन का एकमात्र सत्य?

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पैसा, पैसा, पैसा.. ऐसा प्रतीत होता है जब भी मन के ज़ज्बातों या अपने सपनों भरी दुनिया ( जिसमें हम अपने मन चाहे रंग भरना चाहते हैं) की बात करते हैं, ये पैसा सबको रौंदता हुआ सबसे ऊपर चढ़कर बैठ जाता है। हमारे चाहे जो भी भाव हों, चाहे वो कितने भी कल्याणकारी हों , कितने ही हितकारक हो समस्त प्राणियों के लिए, ऐसा लगता है उससे कोई फर्क ही नहीं प ड़ता यदि हमारे पास आज की तारीख में हाथ में पैसे नहीं हैं! मैं ऐसा नहीं कह रही हूँ कि कोई हमारी भावनाओं की कदर नहीं करता या उन्हें समझता नहीं है, मैं बस यह कह रही हूँ कि ऐसा लगता है बस पैसे ने सब के हाथ बाँधकर रखें है और शायद कुछ हद तक हृदय भी। ऐसा प्रतीत होता है कि मन में ज़ज्बात तो अच्छे हैं पर हृदय के ऊपर एक ताला लगा हुआ है, जिसकी चाबी है रुपया! अब इसमें किसीका कोई दोष नहीं है क्योंकि भले ही कोई कितना अच्छा हो या कितना दानवीर ही क्यों न हो, जीवन यापन के लिए जो भी चाहिए वो तो चाहिए ही! और वो सब संसाधन तो आखिरकार पैसा देकर ही प्राप्त हो सकते हैं। हाँ ऐसा कोई ज़रूरी नहीं है कि पैसा ही सब कुछ हो ही सही मैं मानती हूँ क्योंकि मैं स्वयं ऐसे लोगों से मिली ह