पैसा--क्या यही है जीवन का एकमात्र सत्य?
पैसा, पैसा, पैसा.. ऐसा प्रतीत होता है जब भी मन के ज़ज्बातों या अपने सपनों भरी दुनिया ( जिसमें हम अपने मन चाहे रंग भरना चाहते हैं) की बात करते हैं, ये पैसा सबको रौंदता हुआ सबसे ऊपर चढ़कर बैठ जाता है। हमारे चाहे जो भी भाव हों, चाहे वो कितने भी कल्याणकारी हों , कितने ही हितकारक हो समस्त प्राणियों के लिए, ऐसा लगता है उससे कोई फर्क ही नहीं पड़ता यदि हमारे पास आज की तारीख में हाथ में पैसे नहीं हैं!
मैं ऐसा नहीं कह रही हूँ कि कोई हमारी भावनाओं की कदर नहीं करता या उन्हें समझता नहीं है, मैं बस यह कह रही हूँ कि ऐसा लगता है बस पैसे ने सब के हाथ बाँधकर रखें है और शायद कुछ हद तक हृदय भी। ऐसा प्रतीत होता है कि मन में ज़ज्बात तो अच्छे हैं पर हृदय के ऊपर एक ताला लगा हुआ है, जिसकी चाबी है रुपया!
अब इसमें किसीका कोई दोष नहीं है क्योंकि भले ही कोई कितना अच्छा हो या कितना दानवीर ही क्यों न हो, जीवन यापन के लिए जो भी चाहिए वो तो चाहिए ही! और वो सब संसाधन तो आखिरकार पैसा देकर ही प्राप्त हो सकते हैं। हाँ ऐसा कोई ज़रूरी नहीं है कि पैसा ही सब कुछ हो ही सही मैं मानती हूँ क्योंकि मैं स्वयं ऐसे लोगों से मिली हूँ जो आज भी एक कम्यूनिटी स्पेस जैसे कॉन्सेप्ट में विश्वास रखते हैं जहाँ सब अपनी क्षमताओं व प्रतिभा के अनुसार अपना अपना कार्य बांट लेते हैं और मिल जुलकर अपना जीवनयापन करते हैँ, और इतना ही नहीं बल्कि औरों को भी एक उत्कृष्ट जीवन देने के प्रयास में निरंतर जुटे रहते हैं! पर यदि हम आम लोगों की बात करें तो ऐसा सामंजस्य, ऐसा ताल मेल आज कल के युग में मिलना काफ़ी दुर्लभ है।
पर मुझे अंदर तक चोट लगती है जब भी मैं या कोई भी कोई दिल छूने वाला प्रसंग बताते हैं इस इच्छा से की हमारे श्रोता समझेंगे और मानेंगे आज भी ऐसे निश्चल प्रेम करने वाले लोग जीवित हैं जो दूसरों के प्रति इतनी सहानुभूति रखते हैं, इतना वात्सल्य रखते हैं.. उम्मीद होती है वो कहेंगे वाह! बेटी हो तो ऐसी जो अपनी नौकरी सिर्फ़ इसलिए छोड़ आयी कि उसकी माँ बीमार थी और घर पर उनका ध्यान रखने के लिए कोई नहीं था, पर लोग कहते हैं कि कब तक ध्यान रख लेगी बेटी? कल तो ब्याह कर चली ही जायेगी और अगर नहीं भी गई तो बिना नौकरी के ज़्यादा समय सेवा भी कैसे करेगी? अरे भायी, मैं नहीं कह रही हूँ कि कुछ गलत कह दिया किसीने यहां पर। बस इतना कह रहीं हूँ कि सोचिए ज़रा नौकरी तो फ़िर लग जाएगी, रुपया तो फिर कमा लेंगे, खाने का जुगाड़ तो अगर घर में कोई एक भी कमाता है तो हो ही जाएगा या इतनी पूंजी तो होगी ही की काम चलाने जितना तो हो जाएगा क्योंकि मैं यहाँ बात हम जैसे आम लोगों की कर रही हूँ, किसी दीन दरिद्र की नहीं! खैर छोड़िए कह मैं यह रही थी कि ये सब तो हो जाएगा पर अगर इन सबके बीच उन माँ का ख्याल रखने कोई घर न आया तो क्या वो इसी पैसे को भोगने के लिए जिंदा भी रह पाएँगी? क्या अगर माँ को खो दिया तो वह कभी वापिस आयेंगी? सही समय पर निर्णय करना अत्यावश्यक है कि क्या ज़्यादा मह्त्वपूर्ण है उस समय पर - - माँ या पैसा!
कहने का तात्पर्य बस इतना ही है कि हम अपनी ज़रूरतों से इतना ग्रस्त हो गए हैं कि हम यही भूल गए हैं कि हमारा अस्तित्व किसी पैसे रुपया का मोहताज नहीं है। हमारे अंदर की करुणा, प्रेम, वात्सल्य, शांति, स्थिरता और संतुलन हमारे मूल में है और हम इन्हीं से अपनी महत्वाकांक्षाओं के चलते दिन प्रतिदिन दूर होते जा रहे हैं। यही कारण है कि हमें अपने जीवन काल में संतुष्टि की अनुभूति होती ही नहीं है। हमेशा एक लड़ी सी लगी रहती है अब ये, फिर वो, फिर कुछ और पाने की, करने की। संतोष नहीं, तो संतुलन भी नहीं क्योंकि हमें इस बात का ज्ञान ही नहीं कि कहां जाकर हमे रुकने से स्थिरता प्राप्ति होगी कि बस अब सब है हमारे पास जो भी चाहा था। जब स्थिरता नहीं तो शांति नहीं और शांति के लिए ही तो सारा खेल होता है.. तो अंततः खेल फ़िर से वही से शुरू! अर्थात् जीवन का यह चक्कर ऐसे ही सदा ज़रूरतों और उनकी पूर्ति करते करते ही बीत जाएगा।इन्हीं सब चीज़ों के कारण बन जाता है हमारा ऐसा संकीर्ण नजरिया जहाँ हम भूल जाते हैं कि पैसे के ऊपर भी कुछ है। और दुख की बात तो यही है कि जब अंत समय आएगा विदा लेने का तो ये सब यहीं धरा रह जाएगा - सब एकत्रित धन, रिश्ते, नाते इत्यादि कुछ ऊपर संग न जाएगा और न ही कोई आपको इनके लिए कभी याद भी फर्माएगा ही! सत्य यही है कि पैसा हमे ऊपर ले जा सकता है, पर हम पैसे ऊपर नहीं ले जा सकते!
रह जाएगा यदि कुछ तो बस वो प्रेम जिससे आपने लोगों के जीवन को सींचा होगा, वो करुणा जिससे आपने किसीका हृदय जीता होगा और वो संचित कर्म जो मनुष्यता के लिए वरदान बने होंगे!
तो फिर बताइए क्या पैसा हमे मोक्ष दिलाएगा? क्या पैसा हमे यादगार बनायेगा? क्या पैसा हमे हमारी मृत्यु के पश्चात् लोगों से या कहें अपने प्रियजनों से ही जोड़े रखेगा?
क्या आपको नहीं लगता कि थोड़ा ठहरने की ज़रूरत है, थोड़ा ये समझने की ज़रूरत है कि हमें चाहिए क्या? और हम कहाँ जाकर रुकना पसंद करेंगे? हम कहाँ पहुँचकर ये कहेंगे कि वाह लाइफ हो तो ऐसी!
क्योंकि अगर हम रुकेंगे नहीं तो हमारी ज़रूरतें कभी खत्म नहीं होंगी और जब हमारी ज़रूरतें ही खत्म नहीं होंगी तो हम दूसरों के लिए कब सोचेंगे?और अगर सोचने का ही समय नहीं मिला तो हम कब कुछ करेंगे?
अब विकल्प आपका है जीवन की महत्ता समझते हुए अपने व दूसरों के जीवन को अर्थ प्रदान करना है या केवल स्वयं के लिए जीते हुए, कभी न ख़त्म होने वाली महत्वाकांक्षाओं को पूर्ण करते करते ही मिट्टी हो जाना है..
दूसरों के लिए कुछ करने की जब बात आती है, तो हममें से हर किसी को खुद से ये एक सवाल करना चाहिए कि हम दूसरों के लिए आखिर काम करना ही क्यों चाहते हैं? यानि हम समाज सेवा आदि करना ही क्यों चाहते हैं? दुनिया में और भी काम है, हम यही क्यों करना चाहते हैं?
ReplyDeleteदूसरों के माध्यम से उतरना तो हम स्वयं की गहराईयों में ही चाहते हैं। दूसरे लोग सिर्फ माध्यम बनते हैं हमे हमसे जोड़ने का। यह मेरा मत है, मैं इसे सबके लिए नहीं कह सकती। मुझसे पूछो तो मैं यही काम इसलिए करना चाहती हूँ क्योंकि इसी से मुझे खुशी मिलती है। जो रिश्ता बनता है दिल से दिल का लोगों के साथ वो इतना सच्चा होता है कि दिल अंदर तक संतुष्ट हो जाता है और यही प्रेरणा देता है मुझे हर वो काम करते रहने का जिससे मैं लोगों के होठों पर एक मुस्कान ला सकू क्योंकि मेरी मुस्कान उनके खिले चेहरे देखकर ही आती है, आत्मा तृप्त होती है। काम हम खुद के लिए ही करते हैं, पर उसी प्रोसेस में और लोग भी शामिल हो जाते हैं, उनका जीवन भी खुशहाल बन जाए तो कितना मज़ा आता है खुशी मनाने का और बांटने का। ❤️
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