पत्थर का जवाब फूल से दें

"पत्थर का जवाब पत्थर से दिया तो क्या महान काम किया! "


 मैंने यह पढ़ा था एक जगह कि इंसान वैसा ही बन जाता है जैसा उस के आस पास का वातावरण होता है। हमारे विचार इसबात पर काफी निर्भर करते हैं कि हमें प्रभावित करने वाले लोग कौन है।

जीवन में सर्वाधिक विकास बचपन में होता है और उस समय अधिकतर लोग अपने माता-पिता के साथ, अपने सगे संबंधियों के साथ ही होते हैं अर्थात् हम वैसे ही बन जाते हैं जैसे हमारे आसपास के लोग होते हैं। हमारा अंदरुनी विकास उसी दिशा में होता है जहां हमारे सवालों को अक्सर मोड़ दिया जाता है इन करीबी लोगों द्वारा या जो भी घटित होता है हमारे समक्ष। हर इंसान अपने अनुभवों के अनुसार अपनी एक दुनिया बनाता है, उसके उसूल बनाता है। 

जब हम बहुत आहत होते हैं, नाराज़ होते हैं,पीड़ित होते हैं, किसी बात से या किसी इंसान के व्यवहार से हमारा हृदय अंदर तक दुखा होता है,हमें बार-बार असफलता का मुंह देखना पड़ा होता है , उस समय हमारा दिल और दिमाग दोनों ही बहुत नाज़ुक स्थिति में होते हैं जिन्हें कोई भी आकार,कोई भी दिशा बहुत ही आसानी से दी जा सकती है। अगर कोई गुस्सा है,आहत है और वह ऐसे इंसान के समक्ष चला जाए जो खुद आहत हो,पीड़ित हो तो हमारा और ज्यादा गुस्सा करना, मन में द्वेष पैदा करना किसी और के प्रति काफ़ी स्वाभाविक है।परन्तु यदि ऐसी परिस्थिति में हम किसी शांत इंसान के पास चले जाएं तो अन्ततः हम भी शांत हो सकते हैं और यह भी मुमकिन है की हमारा गुस्सा भी शांत होजाए और थोड़ा बहुत द्वेष और पीड़ा जो हमारे हृदय में उत्पन्न हो गई थी वह भी मिट जाए और हम सिर्फ शांत ही न हो ,बल्कि सामने वाले को क्षमा कर, उसकी गलतियों को अनदेखा कर आगे भी बढ़ सकें। इसलिए यह बहुत महत्वपूर्ण है कि हम कैसे लोगों के संपर्क में हैं और ऐसे संवेदनशील समय में क्या और किसका चयन करते हैं।

जब भी मन आहत हो तो हमे अपने मुख पर सबसे पहले ताला लगाना चाहिए क्योंकि इसी इंद्री द्वारा सबसे पहले क्रोधाग्नि, शब्द-रूपी बाण बनकर निकलती है और काफी घातक हो सकती है जिसे हम भविष्य में चाहकर भी कभी बदल नहीं पाएंगे। ऐसी स्थिति में हमे कोई विशाल हृदय वाला हितैषी मिल जाए तो उससे अच्छा क्या हो सकता है ,या कोई किताब मिल जाए या देखने के लिए कुछ ऐसी चीज जिससे हम स्थिति का सही आंकलन कर सकें।और यदि यह सब कुछ न हो हम अपने अंदर चलने वाली हलचल को अपने मोबाइल में रिकॉर्ड कर सकते हैं या अपनी डायरी में लिख सकते हैं,या कुछ चित्रों के माध्यम से उसे एक पन्ने पर उतार सकते हैं या कुछ भी ऐसा जो हम सिर्फ़ अपने तक रखें और जिसे हम किसीके साथ आसानी से बिना उग्र हुए बांट भी सके। ऐसा करते वक्त हमें पता भी नहीं चलेगा कब हमारी दुविधा न सिर्फ़ शान्त हो गई अपितु उसका समाधान भी होगया।

कोई कैसा भी अनुचित व्यवहार करे हमारे साथ और हम भी प्रतिउत्तर में ऐसा ही करे उसके साथ तो उसमें और हम में क्या ही अंतर रह जाएगा? अगर ईट का जवाब हमने पत्थर से दिया तो उसके और हमारे हृदय में कहां ही कोई असामनता है ? उसका ह्रदय यदि पाषाण का है तो हमारा हृदय यदि फूल सा कोमल नहीं हुआ तो ये निम्न स्तर का युद्ध कभी न समाप्त होने वाला युद्ध बन जाएगा और हम समय के साथ अपना अस्तित्व ऐसे लोगों की वजह से खो देंगे जिनका हमारे जीवन में कोई मोल ही नहीं है।

परिस्थिति चाहे जैसे भी हो, हमें उसका सामना शांत चित्त से ही करना चाहिए। सामने वाला अच्छा है तो उसके साथ अच्छा बनकर रहना कोई बड़ी बात नहीं ,लेकिन यदि सामने वाला क्षण-प्रशिक्षण हमारा अहित करने का ही सोच रहा है और हम फिर भी उसके साथ आदर से,प्रेम से , सत्कार से पेश आते हैं तो यह ही है विशेष बात। निरंतर प्रयत्न से तो एक रस्सी भी पत्थर पर निशान बनाने में सफल हो जाती है तो फिर हमारे सामने तो अधिक से अधिक एक इंसान ही होगा तो हम हमारे प्रयत्नों द्वारा उसका पाषाण सा दिखने वाला हृदय थोड़ा कोमल बनाने का प्रयत्न तो हमेशा कर ही सकते हैं।

कबीर कहते है न, 
"जो तोकूँ कॉटा बुवै, ताहि बोय तू फूल।
तोकूँ फूल के फूल हैं, बाकूँ है तिरशूल ।।" 
 जो तुम्हारे लिए कांटा बोता है, उसके लिए तुम फूल बोओ अर्थात् जो तुम्हारी बुराई करता है तू उसकी भलाई कर। तुम्हें फूल बोने के कारण फूल मिलेंगे और जो कांटे बोता है उसे कांटे मिलेंगे तात्पर्य यह कि नेकी के बदले नेकी और बदी के बदले बदी ही मिलता है। यही प्रकृति का नियम है। लेकिन इसे हमे प्रकृति पर ही छोड़ देना चाहिए। हमें अपनी ओर से किसीके प्रति द्वेष नहीं रखना चाहिए, ऐसा करने से ही हमारा हृदय सत्-चित्त-आनंद की स्थिति में रहेगा हमेशा हमेशा। 

इस बात पर भी गौर करना अत्यंत मह्त्वपूर्ण है कि अधिकतर समय तो हम जानते ही नहीं है सामने वाले के जीवन में कितना कष्ट है,कितनी पीड़ा है जिसकी वजह से वह ऐसा अनुचित व्यवहार कर रहा है हमारे साथ। सब कुछ जानना तो संभव नहीं है परन्तु हमारा व्यवहार तो हम अच्छा रख ही सकते हैं ।सबके लिए समान भाव , सहानुभूति तो रख ही सकते हैं,उससे अगर किसी का भला न भी हुआ,कुछ परिवर्तन न भी हुआ तो कम से कम कुछ बुरा तो कभी नहीं होगा। और किसे मालूम है ,हमारे निरंतर ऐसे प्रयत्न से इतनी बड़ी दुनिया में किसी एक दो मनुष्य के हृदय परिवर्तन भी हो गए तो न जाने कितने लोगों का जीवन सुधर जाए। 

मेरे अनुसार तो निश्कर्ष यही हुआ कि
कोई सुधरे न सुधरे ,
हम तो कर्म अपना करें,
न अपने पथ से भ्रमित होय,
चाहे जो होय, सो होय। 
हम करते रहें अपना कर्म सही
बस ईश्वर से है प्रार्थना यही।
दें वो इतना आत्मबल 
की न हम पड़े कभी निर्बल।



Comments

Popular posts from this blog

जग सूना सूना लागे!

TRUST-- An Indispensable Quality to Survive

प्रेम