मेरा दिल झुका जाए माँ-पापा की ही ओर जब-जब ये दुनिया मचाये शोर!
लोगों को ऐसा कहते सुना है एक परिवार का सबसे ज़रूरी हिस्सा होती है नारी - या कहें माँ। हाँ, इसमें ज़रा भी संशय नहीं कि एक परिवार को जोड़ने का काम माँ ही करती हैं। वह ही हैं जो हर किसी की गो-टू पर्सन होती हैं जब भी जीवन में कोई घटना घटित हो जाती है, या परिवार के किसी दूसरे सदस्य से हमारी खिट-पिट हो जाती है।
पर इन सबका अर्थ ये बिल्कुल नहीं है कि घर की सारी जिम्मेदारियाँ बस माँ की ही हैं! माँ के अंदर इतनी काबिलियत ज़रूर होती है कि वह अकेले ही सब कुछ संभाल लें पर एक बच्चे के जीवन में माता-पिता दोनों ही एक विशेष भूमिका निभाते हैं।
मैं काफी खुश नसीब मानती हूँ खुदको कि मैंने माँ-पापा दोनों का साथ पाया है, दोनों के प्रेम को जीया है, दोनों को अपने हर फैसले में अपने साथ खड़ा पाया है।
दोनों ही बराबर का रोल निभाते हैं,
एक गाड़ी है, तो दूजा गाड़ी की मोटर।
एक पौधा है, तो दूसरा उसको सींचने वाली धूप!
माँ पर लिखना जितना आसान है, उतना ही मुश्किल है पिता के बारे में लिख पाना क्योंकि माँ तो मन की बात बड़ी आसानी से कह दिया करती हैं पर पापा तो बस अपने मन में ही कहके रह जाया करते हैं!
और ऐसा तो है ही की कभी-कभी प्यार करने के साथ- साथ प्यार जताना भी उतना ही महत्तवपूर्ण होता है। इसलिए माँ जता देती हैं और सहजता से सबके दिलों में अपने लिए स्थान बना लेती हैं। पापा प्यार मन में रखते हैं और बाहर से बस वो कितने सख्त हैं, ये दर्शाते हैं और इसी के चलते बच्चों के मन से दूर होते चले जाते हैं!
पर पापा जितने बाहर से सख्त खुदको दिखाते हैं उतने ही नर्म हैं अंदर से, उतना ही घबराते हैं वो भीतर से, उतने ही कोमल हैं वो हृदय से ! चाहे घर छोड़कर बाहर पढ़ने जाना हो, या पहली बार साइकिल या स्कूटर चलाना, सर्दी में बिना स्वेटर घूमना हो या रात को देर से घर आना.. तब माँ तो कह देती थीं, अरे क्या हुआ करने दो, करेंगे नहीं तो सीखेंगे कैसे? गिरेंगे नहीं तो उठेंगे कैसे? ज़्यादा से ज़्यादा गिर जाएंगे, चोट लग जाएगी, हम मिलके ठीक कर देंगे! पर पापा हर बार गुस्सा हो जाया करते थे और बाहर से जो गुस्सा दिखता था अंदर से वो उनकी चिंता होती थी मेरे गिर जाने की, चोट खाने की। वो ये जताते नहीं की मेरा स्कूटर चलाना उन्हें इसलिए नहीं पसंद कि उन्हें मुझपर भरोसा नहीं पर उन्हें शायद रोड पर चल रहे लोगों पर भरोसा नहीं! मुझे ज़रा सी भी असहजता हो ये मेरे पापा को बर्दाश्त नहीं इसलिए ऐसा कोई भी काम जिसे करने में ज़रा भी डर हो कि कहीं मुझे लग न जाए, कहीं मैं परेशान न हो जाऊँ मेरे पापा वो किस्सा ही खत्म कर देना चाहते हैं!
पापा दिखाते नहीं कि मुझे ट्रेन में बैठा कर अकेले घर आना उनके लिए मेरी शादी पे विदाई से कम प्रतीत न होता था। मुझे याद है जब मैंने एक बार अपनी सीट पर समान रखकर पापा को गले लगाया था तो उनकी आंखें नम हो गई थीं, जिसे उन्होंने छुपाने का भरपूर और असफल प्रयास किया था। उन्होंने गुस्से में घर जाकर माँ को कहा था ये 2 दिन के लिए घर आयी ही क्यों, इसके पास समय ही नहीं है घर आने का! वो गुस्सा कम और उनका दिल का हाल ज़्यादा बयां कर रहे था कि मेरी कमी उन्हें कितनी खल रही थी। जब पहली बार मैंने कहा था कि गर्मी के मौसम में, 48 के तापमान में मुझे कानपुर के गांव में जाना है एक प्रोग्राम के चलते तो वो इतना असहज हो गए थे ये सोचकर कि उनकी बेटी कैसे रहेगी वहां जहां कोई सुख सुविधा ही नहीं! जब-जब उन्होंने मुझे खाना खाने के लिए डाँटा है, कहीं जाने के लिए रोका है तो उसकी वजह उनका मुझपर पाबंदी लगाना नहीं, मुझे आगे बढ़ने से रोकना नहीं बल्कि मुझे सहेज के रखना रहा है! वो ये सब कभी कहते नहीं, प्यार सीधे-सीधे कभी जताते नहीं! पर जब मैं छुट्टियों में घर आती हूँ तो बिना कहे मेरी पसंद की सारी चीजें घर में सजा देते हैं लाकर। जब समय आता है कि अब तो मुझे जंग पे भेजना ही पड़ेगा, तो न-नकर करते करते सारी तैयारियाँ कर देते हैं मेरे जाने की और छोड़ आते हैं मुझे दिल पर पत्थर रखकर अपने, मेरे सपनों की दुनिया में।
पापा कभी कहते नहीं, कभी जताते नहीं!
मेरे स्कूल के हर प्रोग्राम से लेकर, कॉलेज के ऐडमिशन तक, जॉब के जॉइनिंग से लेकर फेलोशिप के काॅनवोकेशन तक माँ - पापा दोनों को मैंने हमेशा अपने साथ खड़ा पाया है। कितना भी मुश्किल रहा हो उनके लिए मुझे 3600 कि. मी भेजना एक ग्रामीण क्षेत्र में काम करने के लिए, रिसर्च करने के लिए- पर उन्होंने मुझे कभी टोका नहीं, अपनी जिंदगी अपने मन मुताबिक जीने से रोका नहीं!
अकेले मैंने भारत के गांव, जंगल, पहाड़, रेगिस्तान नापे हैं क्योंकि मेरे ऊपर हाथ मेरे माँ-पापा का है!उन्होंने जितनी ज़्यादा मुझे आज़ादी दी जीवन जीने की, अपने मन की करने की उतना ज़्यादा ज़िम्मेदारी आयी है मेरे ऊपर अपना स्वयं का ख्याल रखने की। आज मेरे जीवन का हर एक किस्सा, हर एक इंसान उनसे होकर निकला है और मुझे खुशी है इस बात की कि वो दोनों खुद ही खड़े होते हैं हर उस तलवार की धार बनकर इस दुनिया के सामने जो उनकी बेटी तक पहुंचने के लिए उठती हो!
मैं सौभाग्यशाली हूँ कि मुझे ऐसे माँ-पापा मिले हैं जो मेरे 25 वर्ष के हो जाने पर ( 23 साल है लड़कियों की शादी की उम्र अधिकतर लोगों के हिसाब से भारत में) जब कोई कहता है शुभी की शादी तो करा दो, तो वो कहते हैं कि अभी क्या जल्दी है?! अभी उसे पढ़ने दो, अपना जीवन संवारने दो, अपने पैरों पर खड़े होने दो, और उसके बाद भी दो साल ऐश करने दो.. शादी का क्या है कभी न कभी तो हो ही जायेगी!! ऐसा सुनकर जो मेरे मन में खुशी की लहर उठती है मैं उसे शब्दों में बयां करने में असक्षम पाती हूँ खुदको। ऐसे परिवार में जन्मी हूं जहां बेटे-बेटियों में रत्ती भर कभी फर्क नहीं किया किसीने! बेटियों को बेटों से ज़्यादा लाड-दुलार ज़रूर मिला होगा इसमें कोई दो राय नहीं है!
मेरे पापा ने सिर्फ़ पैसे लाकर नहीं दिए खिलौनों के लिए, उन्होंने खिलौने लाके दिए हैं मुझे। उन्होंने सिर्फ़ मेरा टिकट नहीं कराया गाड़ी का, वो स्वयं मेरे साथ बैठकर गए हैं मेरी मंजिल तक। उन्होंने सिर्फ़ मुझे जीवन जीने के लिए सुविधायें नहीं दी पर हर कदम साथ में रखा है मेरे। मेरी माँ ने मुझे बस खाना बनाकर नहीं दिया, खाना खिलाया है मुझे। उन्होंने माँ बनके मुझे सिर्फ़ जीवन की घुट्टींयाँ नहीं पिलाई कि ऐसा करो, वैसा करो, ऐसे रहो इत्यादि बल्कि एक दोस्त बनकर मेरे सारे किस्से कहानियां सुने हैं बिना मुझे कोई ग्यान दिए, बिना मुझे जज करे। मैं उन्हें कहने के लिए अपनी दुनिया नहीं कहती, उन्होंने मेरी दुनिया बनकर दिखाया है इस दुनिया को कि बच्चे केवल अपने मन मुताबिक चलाने वाले प्रोजेक्ट नहीं होते बल्कि वो आपके दोस्त होते हैं जो इस नयी पीढ़ी से आपका सम्बंध जोड़ने में आपके सहायक होते हैं।
मेरा बचपन से ही एक ही सपना रहा है माँ-पापा की खुशी और समाज की, देश की वृद्धि। मैं अपना जीवन सिर्फ़ अपने लिए न जीकर, ज़्यादा से ज़्यादा लोगों के लिए जीना चाहती हूँ और इस उद्देश्य के चलते मुझे राह भी मिली, सोशल स्पेस। इसमें काम करना सहज नहीं क्योंकि आप पैसों के लिए नहीं अपने दिल के लिए काम करते हो। और जहां आप अपने दिल से काम करते हो, आपका समर्पण भाव स्वाभाविक रूप से बढ़ जाता है और आपके परिवार का सहयोग इसमें अनिवार्य हो जाता है जब आप अपने परिवार को अपने सपनों का एक हिस्सा बनाकर देखते हो और हर एक कदम उनकी सहमती से, उनके साथ रखना चाहते हों। मैं अकेले रहने में नहीं बल्कि सबको एक साथ जोड़कर चलने में विश्वास रखती हूँ। मैं मानती हूँ कि अगर मेरा परिवार ही मुझसे खुश नहीं तो मैं और लोगों के लिए क्या कर पाऊँगी? इसलिए मैं अपने प्रोफेशन और परिवार को भिन्न नहीं देखती। दुनिया ने यहां भी कम उंगली नहीं करी, कि शादी के बाद कैसे करेगी काम आपकी बेटी, लेना देना, पैसे नहीं है बस मेहनत है और पता नहीं क्या क्या। माँ-पापा ने यहाँ नहीं मेरा साथ दिया और दुनिया का मुँह एक बार फिर यह कहकर बंद किया कि ये हमारी बेटी है, जो परिवार इसे समझ नहीं सकता वो परिवार इसका अपना कैसे हो सकता है? तो जो भी बना होगा इसके लिए वो इसे सहज स्वीकार करेगा और ये उसे।
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